क्या आप भी अपने अंदर की आवाज को अनसुना करते हैं?
ज़िन्दगी में कई बार हमारा दिल हमसे कुछ कहना चाहता है, हमारा मन हम से संवाद करना चाहता है, हमारा दिल हमें कुछ महसूस करवाना चाहता है । किन्तु हम अपने काम में, अपनी उलझनों में, अपने अधूरे सपनों में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि ‘अपने अंदर से आने वाली आवाज’ को सुनने के लिए हमारे पास समय ही नहीं बचता । हम सबको कभी ना कभी यह महसूस हुआ है कि हमारे अंदर की आवाज हमारे छिछले विचारों से ज्यादा समझदार होती है, ज्यादा परिपक्व होती है, ज्यादा गहन होती है ।
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सोचिए, आपको कैसा महसूस होगा यदि ज़िन्दगी की हर विपरीत परिस्थिति में यही ‘भीतर से आने वाली आवाज’, आपको दिशा दिखाएं? जीवन की हर समस्या सुलझाने में आपकी सहायता करें? आपके जीवन का हर महत्वपूर्ण निर्णय लेने में आपकी मदद करें?
मुझे यकीन है कि आपको यह अनुभव जरूर हुआ होगा कि आपका अंतर्मन सही मायने में सशक्त है, बशर्ते हम उसे सुने, उसकी बातों पर गौर करें, उसके सुझावों को आदर दे ।
जब भी आप उलझन में होते हैं, पूरी तरह से भ्रमित हो जाते हैं, निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं, तब क्या करते हैं? क्या आपके अंदर से कोई स्पष्ट आवाज उठती है? क्या आपके भीतर उठने वाली अनेक आवाजों में से आप अपने दिल की आवाज को ढूंढ सकते हैं? क्या आप अपने अंदर से आने वाली आवाज पर यकीन करते हैं? आमतौर पर इन सवालों का जवाब होता है ‘नहीं’, क्योंकि ज्यादातर लोगों को लगता है, यह ‘अंदर से उठने वाली आवाज’ व्यवहारिक नहीं होती और उसमें तर्क का अभाव होता है । उन्हें यह भी लगता है कि ‘अंदर से उठने वाली आवाज’ परिणामों के बारे में सोचती नहीं है । अगर हम इस ‘अंदर से उठने वाली आवाज’ की मान लेंगे तो शायद असफल हो जाएंगे क्योंकि इस आवाज के पीछे कोई तर्क नहीं होता । ‘अंदर से उठने वाली आवाज’ के संबंध में इस तरह की सोच के चलते धीरे-धीरे हम उस आवाज को अनसुना करने लगते हैं । इससे होता यह है कि ये आवाज धीमी और धीमी और धीमी हो जाती है और कुछ समय बाद लगभग लुप्त हो जाती है ।
इसीलिए उन उलझन भरे पलों में जब कोई पूछता है ‘तुम्हारा दिल क्या कहता है?’, तब जवाब होता है, ये खामोश है, कुछ भी नहीं कहता है, क्योंकि जब हमारा दिल हमसे कुछ कह रहा था, तब हम ने उसे चुप कराया, उस पर संदेह किया और उसकी अनदेखी की । यही कारण है, धीरे-धीरे स्थिति कुछ इस तरह बनी कि, हम ज़िन्दगी के सारे निर्णय दूसरों के सुझावों के आधार पर लेने लगें, हम व्यवहारिक हो गयें, हम सब पर यकीन करने लगें, सिर्फ खुद को छोड़कर ।
इसे समझने के लिए एक उदाहरण पर गौर करते हैं । विशाल भारद्वाज भारतीय फिल्म जगत का एक जाना-माना नाम, संगीतकार, लेखक और बेहतरीन फिल्म निर्देशक । हैदर, कमीने, मकबूल, ओमकारा, इश्किया, एक से बढ़ कर एक फिल्मों का निर्माण । इन मसाला फिल्मों के दौर में उनकी फिल्मों ने एक अलग मुकाम हासिल किया है । बेहतरीन और विचार करने के लिए विवश करने वाली उनकी कहानियाँ और कहानी कहने का उनका बेहतरीन अंदाज उनको मसाला फिल्में बनाने वाली भीड़ से अलग खड़ा करता है ।
उन दिनों की बात है, जब विशाल सिर्फ एक म्यूजिक डायरेक्टर हुआ करते थे । फिल्म इंडस्ट्री में नए थे, ज्यादा जान पहचान नहीं थी, इसलिए काम भी बहुत कम मिलता था । और आपको तो पता ही है, कुछ प्रोफेशन्स् ऐसे होते हैं, जहाँ केरियर बनाते हुए खुद को स्थापित करने में सालों गुजर जाते हैं, यहाँ विशाल के साथ ऐसा ही कुछ हो रहा था । उन दिनों विशाल खुद को साबित करने का प्रयास कर रहे थे और हिंदी फिल्म जगत में खुद का एक मुकाम हासिल करना चाहते थे । वैसे तो बॉलीवुड उद्योग में उनकी कोई भी हैसियत नहीं थी और कई बार बॉलीवुड में नए लोगों की काबिलियत को शक की निगाह से भी देखा जाता है ।
उस शुरुवाती दौर में उन्हें एक अच्छा काम मिला, चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी ऑफ इंडिया ने अपनी बच्चों के लिए बनने वाली एक फिल्म का निर्देशन करने का काम उन्हें दिया । विशाल के लिए यह एक आरंभिक सफलता थी, एक अच्छा एवं बड़ा काम उन्हें मिला था, खुद को साबित करने का एक बढ़िया मौका उनके हाथ लगा था । उन्होंने पूरी लगन और समर्पण से फिल्म निर्माण का काम शुरू किया ।
सफल लोग अक्सर कहते हैं, ज़िन्दगी जब भी पहला मौका देती है उसे झपट लेना चाहिए, इस सुनहरे मौके को भुनाने के लिए सौ प्रतिशत समर्पण होना चाहिए और तेज गति से काम शुरु करना चाहिए । ऐसा कहते हैं कि शुरुवाती अवसर सबको मिलते हैं, पर बहुत कम लोग इन स्वर्णिम अवसरों को भुना पाते हैं । लगन, समर्पण और जज्बे के साथ, विशाल इस फिल्म पर काम कर रहे थे ।
कुछ ही दिनों में, उन्होंने फिल्म की आधे से ज्यादा शूटिंग पूरी कर ली और इस फिल्म की कुछ फुटेजेस् उन्होंने समिति को दिखाएं । इस समिति के पैनल में जो लोग थे, वे सारे हिंदी फिल्म जगत के सफल और प्रतिष्ठित लोग थे । फिल्म के फुटेजेस् देखकर समिति का मोहभंग हो गया । संभवतः उन्हें विशाल को निर्देशक के तौर पर लेने के उनके निर्णय पर पछतावा हो रहा था । समिति का मानना था कि फिल्म का निर्देशन बहुत बुरा है, उसकी शूटिंग भी खराब हुई है और यह फिल्म लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आएगी ।
इससे विशाल को गहरा सदमा लगा, वह भ्रमित हो गये, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? फिल्म जगत के इन दिग्गजों की राय को किस तरह ठुकराया जाए? कैसे इस परिस्थिति को संभाला जाए? आखिरकार विशाल ने बॉलीवुड के अपने दोस्तों को फिल्म दिखाई, यहाँ पर दोस्तों की राय बटी हुई नजर आई, कुछ लोगों ने कहा कि फिल्म अच्छी है, तो कुछ लोगों ने कहा कि फिल्म बकवास है । कन्फ्यूजन खड़ा हुआ, उलझन बनी, विभ्रम की स्थिति निर्मित हुई । विशाल के दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल था, अब क्या किया जाए?
आखिरकार विशाल ने हिम्मत दिखाई, खुद के दिल की आवाज सुनी, भीतर से उठने वाली आवाज पर यकीन किया । उनके अंदर से उठने वाली आवाज ने उन्हें दिशा दिखाई और उस आश्वासक आवाज के बूते वह निर्णय की अवस्था तक पहुँच गये । विशाल ने समिति से कहा ‘अगर आपको यह फिल्म पसंद नहीं है, तो इसे मैं आपसे खरीद लेता हूँ,’ और फिर लगभग ₹ ३०,००,००० में उन्होंने फिल्म को खरीद लिया । फिल्म के बचे हुए हिस्से को शूट किया और आखिरकार वर्ष २००२ में फिल्म रिलीज हुई । फिल्म का नाम था ‘मकड़ी’ । लोगों को विशेषकर बच्चों को फिल्म काफी पसंद आई । फिल्म ने अच्छी खासी कमाई की और मकड़ी उस वर्ष की बच्चों के लिए बनी सुपरहिट फिल्म साबित हुई । शिकागो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में ‘मकड़ी’ ने दूसरा पुरस्कार जीता और श्वेता प्रसाद को उस वर्ष का बेस्ट चाइल्ड आर्टिस्ट का पुरस्कार मिला ।
समिति ने फिल्म की खरीद का जो पत्र विशाल को भेजा था, उसे उन्होंने फ्रेम करके अपने ऑफिस की दीवार पर टांग रखा है । शायद यह पत्र उन्हें हर समय याद दिलाता है, कि अपने दिल की आवाज सुनो, अंदर से उठने वाली आवाज का आदर करो, उस अंदर की आवाज पर भरोसा किया जा सकता है ।
तो अब सवाल यह है, कि क्या फिर से एक बार हम उस ‘अंदर की आवाज’ के साथ जुड़ सकते हैं? क्या फिर से हम अपने दिल की कही हुई बातों पर यकीन कर सकते हैं? क्या फिर से हम अपने मन के स्वर को सुन सकते हैं? हाँ, यह जरूर हो सकता है । शुरुवात होगी थोड़ा रुकने से । कुछ पलों के लिए व्यस्तता को छोड़ने से । शांति से विचारों को देखने से । खुद के साथ थोड़ा समय बिताने से । तो फिर क्या कह रही है आपके ‘अंदर की आवाज?’
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Sandip Shirsat
Executive Leadeship Coach & Trainer, Founder & CEO of IBHNLP
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Summary:
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